दो फीट और दो मिनट

आज ऑफिस से लौटते हुए, मैंने एक गाड़ी में कुछ वैश्याओं को खूब हंसते देखा।
वैश्या थीं, दावे के साथ कह सकती हूं, वही नर्मी, वही सांस हल्की सी अंदर लेकर बाहर छोड़ते हुए मीठी सी आवाज में हंसना, आंखों में अलग सी कशिश। 
यूं तो मैं सिग्नल पर, अपने कानो में बजते गानों पर, अपनी उंगलियों को हैंडल के ऊपर, ऐसे तेज गति में, हल्की सी थाप के साथ चलाती हूं जैसे मुझे संगीत का बहुत ज्ञान है, या शायद संगीत से बहुत प्यार है, सो तो खैर है। मगर आज, बैटरी कम थी फोन में, कानों में इंदौर के सर्कस जैसे ट्रैफिक की आवाज मानो टेबल टेनिस खेल रही थी, घर पहुंचने से पहले ही मैंने पापा से कह दिया था कि वो चाय बना कर रख दें, सर में दर्द है। 
आखरी सिग्नल जो मेरे घर के रास्ते में पड़ता है उसपर जब मैं रुकी, कुछ १२० सेकंड के लिए, तभी ख़ूब हंसने की आवाज़ आई, ऐसी वैसी नहीं, बेहद खूबसूरत और मीठी, जैसे पुरानी फिल्मों में लड़की अपने घूंघट को दांतों में दबाकर शर्मा के भागते हुए हंसती थी बिलकुल वैसी। मैंने नज़र दौड़ाई तो मेरी दाए ओर एक ऑल्टो में तीन बेहद आकर्षक औरतें बैठी थीं, उनके चेहरे पर पाउडर थोड़ा ज्यादा लगा था, और लिपस्टिक भी मेरे टेस्ट के अनुसार थोड़ी भड़कीली थी, मगर अलग तरह का आकर्षण महसूस हो रहा था उन्हें देख कर। वो बहुत ज़ोर से हंस रही थी, खुले दिल से, उनका एक दोस्त गाड़ी की ड्राईविंग सीट पर था, वो भी मानो उनकी सहेली ही था, और सच कहूं तो वो भी काफी अच्छा दिख रहा था साटिन की चमकीली भूरे रंग की शर्ट में। तीनों के बालों में गजरे थे, सफ़ेद और घने। 
इस पूरे दृश्य को मैं इतनी मगन होकर देख रही थी कि मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि कब वो लोग मुझे उन्हें इस तरह देखते हुए देख पा रहे है। जैसे ही मेरी आंख उनमें से एक महिला से मिली, मैंने देखा उन सबकी हंसी की आवाज़ अब सुनाई नहीं दे रही थी। मेरे स्कूटर और उनकी ऑल्टो के दरमियान जो दो फीट का फासला था वो अब शर्म, हिचक और हीन भावना के लिए काफ़ी आरामदायक स्थान बन चुका था। 
मुझे बहुत गंदा महसूस हुआ, मानो ऐसा लगा जैसे मैंने उनसे कुछ छीन कर उन्हें जीभ चिढ़ाई और ठेंगा दिखाया, और वो बस मुझे देखती रहीं जैसे मैं न हूं तो उनके जीवन में क्या ही गम है। शायद उन्हें लगा हो मैं उनके होने से प्रभावित हो रहीं हूं या उनसे मुझे किसी भी तरह की तकलीफ़ है, मैं तो सिर्फ उन्हें निहार रही थी। घूरे जाने की भी उन्हें क्या ही लत लग चुकी थी, लत हमेशा बुरी ही होती है।
 मुझ जैसी थकी इंसान जब किसी को इतना खिलखिलाते हुए देखेगी तो ज़रूर सोचेगी की मैं ऐसा क्या करूं जो मैं भी यूं हस पाऊं। औरतें, स्त्रीत्व, औरतों की वो कशिश मुझे हमेशा से ही बहुत ओजस्वी लगती हैं, अब उन्हें ये कौन समझाए। 
आज दो फीट और दो मिनट के अंदर अंदर मुझे इस समाज के लाखों पहलू नज़र आए। 
काश मैं उनसे और उन दो फीट के फासलों से कह पाती, मैं भी आज किसी के एक जवाब पर दिन भर मुस्कुराई हूं, मैं भी उसी सिग्नल पर १२० सेकंड के लिऐ खड़ी हूं, मैं भी उन्हीं की तरह हूं, मैंने भी आज मोगरे के फूलों से बनी परफ्यूम लगाई है, मुझे माफ़ करना मगर मैंने सच में तुम्हारी हंसी नहीं चुराई है।
© कशिश सक्सेना

Comments

  1. Anonymous18.6.22

    Gr8.. कशिश 👌🏻

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  2. Anonymous19.6.22

    चमत्कारिक कलम... सुखद वर्णन, सटिक लेखन, दो मिनट के मौन रोमांच की रोचक प्रस्तुति।

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  3. Anonymous19.6.22

    बहुत ही उम्दा ख़यालात बेटा आपके, नजरिए की तारीफ करती हू आपके....
    शाबाश 👏👏

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    1. Anonymous19.6.22

      Wow!! Very candid and realistic presentation of "Thoughts ka tana-bana"

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  4. Anonymous19.6.22

    Amazing thought Kashish!!

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  5. 👏👏👏👌✍ keep it up.. stay blessed👍👍👍

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  6. Anonymous27.7.22

    Not into any reading but this too good to be left unappreciated

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