वृद्धि


औरत होने के कई पहलू है, या होते है। होते है इसलिए क्योंकी शायद सच में औरत को समझना मुश्किल है, हर औरत में वो औरत मिल सकती है जो शायद किसी दिन किसी तीसरी औरत के लक्षण दिखा रही हो, मगर अगले ही दिन उसका बहिष्कार कर रही हो, आखिर औरत भी तो जानवर का विकसित रूप है। 

आज नारित्व की बात इसलिए कर रही हूं क्यूंकि आज खुद में एक खूबसूरती का अंश महसूस कर रही हूं। ये नही कह रही की बदलाव है, बस वृद्धि है। मैं नहीं जानती इसे नारित्व क्यूं कह रही हूं, शायद जिस प्रकार की शालीनता का एहसास हो रहा है उसके बारे में हर किताब, फिल्म, संगीत या समाज ने मुझे उसे औरत से संबंधित दर्शाया है। ऐसे देखें तो सभी एहसासों का एक ही आसमान है, मगर हर आत्मा का पिंजरा अलग। और सामाजिक रूप से देखें तो हर विभाजन का पिंजरा अलग। 

कितना विचित्र है ये, हम दुनिया में तो आते है मगर दुनिया हमारे लिए अभिसमय की किताब लिए खड़ी रहती है। आज दुनिया अपनी आत्मा से देखने की कोशिश करूं तो पहले कई लड़ाइयां लड़नी पड़ती है। ऐसी ही एक लड़ाई लड़ रही हूं, खूबसूरती से भरी, अभिसमय के खिलाफ़ शायद।
हां, तो मेरी खूबसूरती जो मैं आजकल महसूस कर रही हूं; माफ़ करना बड़बोली हूं ज़रा सी, दिल और हरकतों से मैं सादी और चुलबुली हूं , महज़ नज़ाकत की कमी है। ये शारीरिक खूबसूरती की बात नहीं। आजकल संपूर्ण सा पाती हूं खुदको, जबसे प्रेम हुआ है, हर दिन खुदको बढ़ता देख रही हूं। मन से उसकी ओर, आत्मा से बेहतरी और शरीर से ज़िंदगी में, आगे बढ़ता देख रही हूं खुदको। 

कई लोगों से बात करती हूं प्रेम की, शायद अपनी खूबसूरती की तलाश में। जब मैंने इज़हार किया था मेरे प्रेम का तब एक अंश पनपने लगा था मेरे अंदर, जो कि करोड़ों एहसासों का एक जत्था था, आज उसी जत्थे को बुन कर एक सुकून भरी चादर में बैठी हूं। इस चादर में, जितने गूथ है, जितनी गाठें है, बस उतनी ही तकलीफ़ बुनी है, प्रेम है न। 

जिससे मैंने प्रेम किया है, वो मुझसे भी ज़्यादा खूबसूरत है, शायद ईश्वर ने उसकी आत्मा में हर वो गुण डाला है जो वो मुझमें डालना भूल गया था। उसकी तारीफ़ में बस इतना कहूंगी वह मेरी नज़रों में एक ऐसा इंसान है जिसका आपके जीवन में होना आपके गुरूर की वजह बन सकता है। इतना संपूर्ण, इतना बेचैन, इतना शांत, इतना चंचल, ज़िंदगी से भरा हुआ, ज़िंदगी को खोजता हुआ। खामियों के बारे में नहीं कहूंगी, कहते कहते अगर संवारने लग गई तो बावली लगूंगी। 

उसे मेरी समझदारी पसंद है, और मुझे उसपर पागल पागल होना। कभी कभी थक जाती हूं, इस चादर में, मन करता है कह दूं उसे की आकर खोल दे हर एक गांठ को, और बंध जाए इस चादर की तरह मेरे मन से, मेरे बदन से, देख ले हर अंश मेरा, चूम कर सहेज ले उसे जो की सब उसका है। 
तारीफ़ उसकी आत्मा की फिर करूंगी जो उसने मुझे एक घर दिया, अपनत्व का घर। जहां मैं अपनी चादर में लिपटी, दीवारों पर प्रेम प्रेम लिखती फिरती हूं और वो मालिक होकर भी बस खिड़की से देख मुस्कुरा देता है। वरना आजकल के मकानमालिक बड़े ही निर्दय होते है।

लोग कहते है मैं खूबसूरत हूं, हां मैं खूबसूरत हूं, चादर में जो लिपटी हूं, आज भी कहां नंगी औरतों को खूबसूरत कहा जाता है।
© कशिश सक्सेना


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