तना
शाम ढलने पर जो आसमान की एक नारंगी सी ओट के रूप में खड़ी हो जाती है, उससे ठीक पहले एक पेड़ खड़ा होता है जिसकी सबसे ऊँची टहनी पर लगी आखरी पत्ती आसमान से मेलमिलाप करती दिखती है।
तना उस पेड़ का, नीचे अपना वर्चस्व क़ायम किए, आँख बंद कर बैठा मुस्कुरा रहा है, किसी तपस्वी की तरह। बीज एक ही था, सबका, मोटे भूरे झुर्रीदार तने से लेकर पेड़ की सबसे ऊँची, सबसे हरी, सबसे कोमल उगती पत्ती का, बीज एक ही था।
पहले भी कई बार घर छूटने के बारे में लिख चुकी हूँ, मगर आशा और उत्साह के समंदर से भरी स्याही से। आज अपने घर की छत पर बने स्टोर रूम में जब कदम रखा तो अपनी छोटी से नीली रंग की कुर्सी देख कर फूट फूट कर रो पड़ी।
उस स्टोर रूम से निकलकर छत पर बने एक खँबे को छू छू कर ख़ुद को ज्ञात कराया, ख़ुद को अपने बीते कल की धारीदार दीवार सा पाया, तो वहीं ख़ुद को ज्ञात कराया और अपनी आज में छूती उन उँगलियों सा कोमल पाया।
उसी बीच पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर बैठी, आसमान ताकती उस पत्ती को देखा, हवा तेज़ थी, हवा में ख़ूब नयापन था, वो जूझ रही थी, उसके पास और भी पत्तियाँ थीं, सब ही जूझ रहीं थी, एक को तो ना जाने हवा कितनी दूर ले गई, लेकिन हमारी मनपसंद, कहानी की सबसे प्यारी पत्ती जूझते जूझते टूट कर, नारंगी ओट पर काली स्याही की तरह फैलती हुई, तने और ज़मीन के बीच जड़ों में जा गिरी।
उस वक्त मैंने ख़ुद को पेड़ की आखरी पत्ती सा पाया, मेरी छत पर खड़े उस धारीदार खंबे को तने सा। इस बार निराशा से लिख रही हूँ, घर छूटने की बात।आशा है हर पत्ती को उसका तना मिलता रहे।
- कशिश सक्सेना
If words could capture the beauty of nature it would have been exactly this
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